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صروفُ الدّهر ِ أعيتْ لي رشادي |
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ونارُ البعد ِ أجّتْ في فؤادي |
أسلّم ُ للزمان ِ قياد َ أمري |
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بلا حرج ٍ ، فقد طالَ التمادي |
وداعا ً يا مليكة َ كلّ ِ أمري |
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وداع َ مسافر ٍ من غير ِ زاد ِ |
وداعا ً قلت ُ !! ، لو يعيا لساني |
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ولم ينطق ْ بما يدمي فؤادي |
وداعي ، لا أطيق ُ له سماعا |
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ويشهدُ خالقي أني لصادي |
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يطولُ فراقنا من غير ِ يأس ٍ |
فإنْ ظنّوا بـأنـّا قد نسينا |
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فقد وهموا ، فحبي في ازدياد ِ |
أصابرُ ما استطعتُ لك ِ البعادا |
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خيالك ِ يا ( ندى ) في كلّ ِ نادي |
يزيد ُ الهمُّ أيامي مَـلالا |
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وليلي طالَ ، لا ألقى وسادي |
فإنْ أغفو ، على التذكار ِ أغفو |
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وإنْ أصحو ، فذكرك ِ لي ينادي |
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فقدت ُ سعادة َ الأيام ِ لمّا |
إذا حلّ القضاء ُ بأرض ِ قوم ٍ |
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فكلُّ وسيلة ٍ ليست بزاد ِ |
سلاما ً يا ضيا عيني سلاما |
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فإن غبت ِ ، فهذا الحبُّ زادي |
ولا أرجو من المولى تعالى |
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سوى لقياك ِ في يوم ِ المعاد |
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