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| كـتـبـتُ قـصـيــدتـي شــعــرا |
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وصـفـتُ حــبـيـبـتـي نَــثــرا |
| وقـلـتُ بـأنـّـنــي نـــهـــرٌ |
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أســابـقُ فـي الــهــوى نـهـرا |
| أفـيـضُ بــمـــاءِ أشـــواقــي |
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وأفــرشُ قـلــبَــهــا زهـــرا |
| أضـمِّــدُ جـرحَــهــا حـيـنــا |
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وحـيـنــا أبــطــلُ الـسِّــحـرا |
| فـلا تـهْــربْ فـلــنْ تـلـقــى |
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بـشـرفــةِ حــبِّــنـا جَـمــرا |
| فـكـمْ مـلـحٍ شَــفـى جُــرحـا |
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وكـمْ لــيـــلٍ هَــوى فَـجــرا |
| أعــانـقُــهــا أقــبـِّـلُـهــا |
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وأنــت تــرومُـــنــا بـَــدرا |
| فـــذا قـَــدَري بـأنْ أهـــوى |
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قـصـيــدةَ حــبِّـهـا شِــعـرا |
| عـروضـُـتـهــا مـفـاعَـلـتـن |
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و في ضربٍ هَــوى بـِـكْـرا |
| وذا قــــدَري مـفـاعـــيـلــن |
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بـكـأسِ هـوى سَــقـا مُـــرّا |
| فـكـيـفَ لــمَــنْ تـجـرَّعَـهُ |
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ولــمْ يُـبـــدلْ لـــهُ أمْــرا |
| ســـجـيـنٌ أنـتَ يـا أنـســي |
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فـكـيــفَ تُـحــرِّرُ الـدَّهــرا |
| سـَـئـمـتُ قـيـودَ قـافـيَـتـي |
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وجـــرحَ الـحُــبِّ لا يَـبــرا |
| أُنـادي عَــلَّ مِـنــكَ صَـــدى |
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يــردُّ الـلّــحــنَ أو شَــطـرا |
| مَـتـى , ومَـتـى تُـشـاطـرُنـا |
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قـصــائـدَنــا ولـو قََـطــرا |
| لــحُـــبٍّ لــمْ يـزلْ أمَـــلاً |
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لــذاكَ الأمـــسِ, لا ذكـــرى |