|
|
| تَـعَـــــلَّـقني الــشــيــبُ قــبـــل الــمــشــيــــبِ |
| عــُلُــوقَ المــُـحِـب بــذكر الـــحبــــيـــــــبِ |
| وقــد يــســمـع الــصَّـــبُّ بالــيــــاسمــيــــــــن |
| فـيــشــعــر بــالــعــطر مـن غـيــر طــيـــبِ |
| إذا شِـــــبْـــــتُ فـــالنــــــــــاس لَــمَّــا يزالـــوا |
| يــشــيــبــون من مُـتـــــْــرَف أو تــَـريـــب1 |
| وإنــــي كـــغــيري أحـــب الـــــــطــــريـــــــف |
| وأســــأمُ من كـــــــل شيئٍ رتــــــــــــيــب |
| وأحــــــزن إن ساء ني مــــا يـــــســــــــــــوء |
| ويَعْجبُ لُبِّي لأمرٍ عـجــيــب |
| وسمعي يــمــجُّ نـــعـيــــبَ2 الــــــــغــــــــراب |
| وأَطــْــرَبُ مِن طــَـــرَبِ الــعــنــــدلـــيــــب |
| وتــُــثـــْـقِـــــــلني بــالهــــمـــــوم الــــحــــيــــــــاةُ |
| وتـَـــــذرف عـــيــني لــوعـــظ الـخـطيب |
| وأَمــقُـــــتُ خِـطـــْــئي إذا ما خَــطِــئــــــتُ |
| ويـــــشرح صـدري صـــوابُ الــمُصيـب |
| وتــأْلــَـمُ نـــفــــســـي لـــمـــجــدٍ يـــــضــــــــاع |
| و عِلــــــــج يــــطــــاع وقـــــدس ســلــيب |
| فــلــســطــيــــن تـــرزح تـــحـــت الــيــــهــود |
| وفي الرافــــــديــــــن جــيـــــوش الـــصليب |
| تــشــيــــد صروحَ الــزمـــــــان الـجَـديــب3 |
| عــلى جــنــبــات الــهلال الـــخـصــيــــب |
| إذا فــــــكــــَّــر الــمـــــــرءُ فيمــا عَرانــــــــــا |
| فـــــما شَـــيــْــبُ أطـــفــالــنــا بـالـغـريــب |
| ونــحـنُ الـــــــدروبُ وَشَـى 4 إذ تــمـَـشَّى |
| عـليــها الجـــديدان5 رسمَ الــدَّبــيـــب6 |
| قــضى الــشــيــب بـالــعدل بــيـن الـبرايــــــا |
| فـَـرأسُ الحقير كـــــــــرأسِ الــــنـــقــــــيــب |
| ولــكــنَّ لــلــــــــطــــــب في الشــيب يـــغــزو |
| رؤوسَ الأطـــــبـــــاء بــعـضَ الــنــصـيب |
| لــقــد يــَـــســلـب الــطــبُّ مــني شـبــابـــي |
| كــمــا تــســـلــب الــريــحُ رمـــلَ الكثيب |
| لأني أفـــــــــــــــــــكــــر كــالــــفـــيـــلـــســوف |
| وأحـــمـــل في الـــقــلــب حِـــــس الأديب |
| فــــعــــقــــــلي يـــــخـــاتـــــلــــــني بالــشـــرود |
| وقلــــــبي يــــؤرقـــــــني بـــالـــــــوجــيـــب7 |
| فـــكـــم فـــاجـــــؤوني بــعــظـمٍ كــســيــــر |
| ورأسٍ هـــشـــيــمٍ وعـِـرْق شـَـخــِـيــب8 |
| وكــــم مـن أسير لـــداءِ الفــــصـــــام |
| لقيتُ، وكم قــَلـِقٍ أو كــئــيــبِ |
| وكم من صـــغــــير يـــــجـــــود بــــنــــفـــــس |
| وأُمٍّ تـــــجــــــود بــــــدمــــــــعٍ ســـكـــــيب |
| أرى الــطــفــلَ طِــفـــْــلـــــي إذا مـــا تَلـــوّى |
| وكــــــلَّ مــــــريــــــــض يـــمــوتُ قــــريــبــي |
| هو الــمــــوتُ يأمُــــــــرُني في صُـــمــَـــــــــات |
| بأن أســتــــعـــد لــيــــــــوم رهــــيـــــــــــب |
| وأبـــــلـــــغُ مــــوعــــظـــــةٍ لـــلأريـــــــــــــــــبِ |
| نــجــــاةُ الــــســقــيــم ومــوتُ الـــطــبـيـب |
| وأعـــرِفُ أشـــيـــــــــــــاءَ يُـــــــثــــنــى عليها |
| أُسـِـــــــــرُّ بـــــهــــا لــلـــسـمـيـع الــمــجيب |
| وأُنـــْـــــكــِــرُ أشـــــــيــــــاءَ لو خضت فيهــا |
| لـــمــا سَــلـِـــمـَـــت مــن مـقــص الـرقـيب |
| إذا شــعَّ في لـــحيـــة الـــــكــــهـــل ضـــــــوءٌ |
| مـن الــشـمــس مـــن بــعــد طول المغيب |
| فـــــمـــــا كـــلُّ أســــودِ لـــــونٍ جـــمـــــــيــــل |
| ولـــيــس الــبــيــاضُ بـــلـــــونٍ مَــــعـيـــــب |
| فــــذي قـــهـــــــوةٌ صِــــرفــَــــةٌ قد تــصــيـــر |
| ألــــذَّ إذا مـُـــــزِجَـــــــــتْ بـالحـــلـــــــيـــب |
| وذي روضـــــةٌ زُيـــِّــنـــــت بــالــبـــــهــــــار |
| وأضـــحـــكهـــا الـغــيــثُ بـعد الـنـحيب |
| فـــكـــيــف وقــــد غَــنِـــيـَــتْ بـالـعـظـــات |
| تـــُـــلام على لــُـبس ثوب قــــشــيـــب9 |